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अभाव अच्छा है

अपनेराम की डायरी
अपनेराम की डायरी
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अभाव अच्छा है| जीवन में प्रत्येक वस्तु अगर सरलता से मिल जाये तो उसका मूल्य समझ नहीं आता| हम जब बच्चे थे तो कई चीजें ऐसी थी जिनके बारे में हमें जानकारी नहीं थी परन्तु वो बाज़ार में उपलब्ध थीं और हमारे पास पड़ोस में रहने वाले परिवार उनका उपयोग करते थे| मेरे पिताजी अपने बलबूते पर कर्ज ले कर पढ़े और इंजिनियर बने| मेरे होश सम्हालने के समय से पिताजी एक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक थे और हमारा जीवन सुचारू रूप से चल रहा था| उनके वेतन का एक बड़ा भाग कर्ज उतारने में, उनके परिवार की आर्थिक मदद करने में खर्च हो जाता था, परन्तु फिर भी ऐसी किसी आर्थिक तंगी से गुजर रहे हों, ऐसा कोई भाव उन्होंने कभी नहीं दर्शाया| मेरी माँ का किफ़ायत से घर चलाना और पिताजी का भरपूर साथ देना हमें किसी अभाव का आभास भी नहीं होने देता था|
मुझे याद है एक बार कॉलोनी में एक दोस्त के घर डबल रोटी देखी और अचंभित हो गया की ये क्या है, घर आ कर माँ को बताया तो उसने डबलरोटी कैसे बनती है वो बताया और समझाया की ‘बेटा, डबलरोटी मैदे से बनती है और मैदा पेट में जा कर चिपक जाता है|’ डबलरोटी की जिज्ञासा का समाधान पल में हो गया|
ऐसे कई क्षणों को मेरी माँ ने बहुत ही नीतिमत्ता से सम्हाला और हमें हमेशा खुश रखा| लड्डू, गुजिया, से ले कर, गुलाबजामुन, जलेबी तक, समोसे, कचोडी से ले कर छोले भठूरे तक सब कुछ माँ घर पर बनाती थी और हम पेट भर खाते थे| गुलाबजामुनों का एक किस्सा याद आ रहा है, किसी को घर पर खाना खाने बुलाया था और कुछ पूजा भी थी शायद| पूजा के बाद गुलाबजामुनों का भोग लगा और खाने की तयारी में सब लग गए| इधर हमने मौका देखा और आते-जाते गुलाबजामुनो का भोग लगाना शुरू कर दिया, करीब ५० गुलाबजामुनों में से जब ५/७ ही बचे, तब जा कर छुप गए कहीं| मेहमानों के लिए जब गुलाबजामुनों की बारी आई तो माँ के होश ही उड़ गए, खैर उस समय किसी तरह सम्हाला गया मौके को और मेहमानों के जाने के बाद अपने राम की जो पिटाई हुई है की राम भजो(ऐसा कोई भी कांड घर पर सिर्फ मैं ही कर सकता था ऐसा पूर्ण विश्वास मेरी माँ को था और वो सही भी थी)|
अभाव का मतलब यही की बाज़ार में मिलने वाली मिठाइयाँ, नमकीन, बिस्किट, चोकलेटस इत्यादि हमने कई बरसों तक कभी नहीं खायीं| वहीँ बेकरी में कनस्तर भर के बिस्किट बनाने की सामग्री ले जा कर आटे के बिस्किट बनवा कर लाना मुझे याद आ रहा है, उन बिस्किटों का स्वाद भुलाये नहीं भूलता| आज भी बाज़ार में मिलने वाली वस्तुओं से अधिक मुझे घर पर बनी मिठाई, नमकीन, आदि अच्छे लगते हैं, उसमे मुझे माँ का प्यार, स्नेह और आशीर्वाद का आभास होता है और स्वाद दोगुना हो जाता है|
आज जब अभाव नहीं है और हम सभी के बच्चे अभाव के बगैर जी रहे हैं तो इन भावनाओं का ह्रास होता दिख रहा है| सरलता से मिल जाने वाली वस्तु का महत्त्व कम हो जाता है| यही हो रहा है आज घर पर बने व्यंजनों से ज्यादा बाज़ार का रुख हो रहा है, बनी बनाई, पकी पकाई चीजें बाज़ार में हैं और उनका उपयोग करना आज फैशन होता जा रहा है| वो माँ के हाथों का स्वाद,वो ममता, वो भावना से ओत प्रोत व्यंजन आज गायब होते जा रहे हैं| इसका कारण समय की कमी हो सकता है परन्तु फिर समय निकाला भी जा सकता है| घडी की सुइयों का गुलाम बन कर भावनाओं का ह्रास ठीक नहीं|
अभाव अच्छा है क्यूंकि अभाव हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है, हमारी भावनाओं को जिन्दा रखता है और सबसे महत्वपूर्ण की ये की अभाव हमें वस्तुओं का , रिश्तों का, और भावनाओं का मूल्य समझा देता है|
अभाव अच्छा है| जीवन में प्रत्येक वस्तु अगर सरलता से मिल जाये तो उसका मूल्य समझ नहीं आता| हम जब बच्चे थे तो कई चीजें ऐसी थी जिनके बारे में हमें जानकारी नहीं थी परन्तु वो बाज़ार में उपलब्ध थीं और हमारे पास पड़ोस में रहने वाले परिवार उनका उपयोग करते थे| मेरे पिताजी अपने बलबूते पर कर्ज ले कर पढ़े और इंजिनियर बने| मेरे होश सम्हालने के समय से पिताजी एक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक थे और हमारा जीवन सुचारू रूप से चल रहा था| उनके वेतन का एक बड़ा भाग कर्ज उतारने में, उनके परिवार की आर्थिक मदद करने में खर्च हो जाता था, परन्तु फिर भी ऐसी किसी आर्थिक तंगी से गुजर रहे हों, ऐसा कोई भाव उन्होंने कभी नहीं दर्शाया| मेरी माँ का किफ़ायत से घर चलाना और पिताजी का भरपूर साथ देना हमें किसी अभाव का आभास भी नहीं होने देता था|
मुझे याद है एक बार कॉलोनी में एक दोस्त के घर डबल रोटी देखी और अचंभित हो गया की ये क्या है, घर आ कर माँ को बताया तो उसने डबलरोटी कैसे बनती है वो बताया और समझाया की ‘बेटा, डबलरोटी मैदे से बनती है और मैदा पेट में जा कर चिपक जाता है|’ डबलरोटी की जिज्ञासा का समाधान पल में हो गया|
ऐसे कई क्षणों को मेरी माँ ने बहुत ही नीतिमत्ता से सम्हाला और हमें हमेशा खुश रखा| लड्डू, गुजिया, से ले कर, गुलाबजामुन, जलेबी तक, समोसे, कचोडी से ले कर छोले भठूरे तक सब कुछ माँ घर पर बनाती थी और हम पेट भर खाते थे| गुलाबजामुनों का एक किस्सा याद आ रहा है, किसी को घर पर खाना खाने बुलाया था और कुछ पूजा भी थी शायद| पूजा के बाद गुलाबजामुनों का भोग लगा और खाने की तयारी में सब लग गए| इधर हमने मौका देखा और आते-जाते गुलाबजामुनो का भोग लगाना शुरू कर दिया, करीब ५० गुलाबजामुनों में से जब ५/७ ही बचे, तब जा कर छुप गए कहीं| मेहमानों के लिए जब गुलाबजामुनों की बारी आई तो माँ के होश ही उड़ गए, खैर उस समय किसी तरह सम्हाला गया मौके को और मेहमानों के जाने के बाद अपने राम की जो पिटाई हुई है की राम भजो(ऐसा कोई भी कांड घर पर सिर्फ मैं ही कर सकता था ऐसा पूर्ण विश्वास मेरी माँ को था और वो सही भी थी)|
अभाव का मतलब यही की बाज़ार में मिलने वाली मिठाइयाँ, नमकीन, बिस्किट, चोकलेटस इत्यादि हमने कई बरसों तक कभी नहीं खायीं| वहीँ बेकरी में कनस्तर भर के बिस्किट बनाने की सामग्री ले जा कर आटे के बिस्किट बनवा कर लाना मुझे याद आ रहा है, उन बिस्किटों का स्वाद भुलाये नहीं भूलता| आज भी बाज़ार में मिलने वाली वस्तुओं से अधिक मुझे घर पर बनी मिठाई, नमकीन, आदि अच्छे लगते हैं, उसमे मुझे माँ का प्यार, स्नेह और आशीर्वाद का आभास होता है और स्वाद दोगुना हो जाता है|
आज जब अभाव नहीं है और हम सभी के बच्चे अभाव के बगैर जी रहे हैं तो इन भावनाओं का ह्रास होता दिख रहा है| सरलता से मिल जाने वाली वस्तु का महत्त्व कम हो जाता है| यही हो रहा है आज घर पर बने व्यंजनों से ज्यादा बाज़ार का रुख हो रहा है, बनी बनाई, पकी पकाई चीजें बाज़ार में हैं और उनका उपयोग करना आज फैशन होता जा रहा है| वो माँ के हाथों का स्वाद,वो ममता, वो भावना से ओत प्रोत व्यंजन आज गायब होते जा रहे हैं| इसका कारण समय की कमी हो सकता है परन्तु फिर समय निकाला भी जा सकता है| घडी की सुइयों का गुलाम बन कर भावनाओं का ह्रास ठीक नहीं|
अभाव अच्छा है क्यूंकि अभाव हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है, हमारी भावनाओं को जिन्दा रखता है और सबसे महत्वपूर्ण की ये की अभाव हमें वस्तुओं का , रिश्तों का, और भावनाओं का मूल्य समझा देता है|

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