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जुवेनाइल जस्टिस कानून में बदलाव और सुधार का फैसला कल भारत सरकार ने ले लिया, बहुप्रतीक्षित था ये बदलाव| परन्तु क्या सिर्फ कानून के डर से निर्भया जैसे काण्ड होने बंद हो जायेंगे, मैं मानता हूँ की नहीं होंगे|
मैंने ये कविता लिखी थी जब दिल्ली का वो घृणित बलात्कार सुर्ख़ियों में था| मेरी कविता मैंने अपने परिवार को, जान पहचान वालों को सुनाई तो उन्हें कविता अच्छी तो लगी पर इसमें उन्हें निराशा के सुर सुनाई दिए| मेरे विचार से ये एक आशा भरी कविता थी जो चाहती है की नारी की अवस्था में, समाज में उसके स्थान में परिवर्तन हो और उसे भोग की वस्तु न माना जाये| जब तक ऐसी स्थितियां नहीं बनती कोई बालिका जन्म नहीं लेगी| यदि पुरुष नहीं सुधरे तो इस धरती को स्त्री विहीन ही रहना चाहिए| मेरा उद्देश्य है की इस कविता से ही सही पुरुषों की विचार बुद्धि जाग उठे और परिस्थितियां बदलें| इस कविता की अजन्मी बच्ची एक अघोषित हड़ताल का आवाह्न कर रही है, और इसीलिए मुझे ये कविता कहीं भी निराशावादी नहीं लगती|
आज इतने दिनों के बाद भी क्या नारी के प्रति अत्याचार रुक गए? आंकड़े देखें तो लगता है की उसकी संख्या में वृद्धि ही हुई है| कानून बनाने और संशोधन करने से कुछ हासिल नहीं होगा, हम पुरुषों को स्वयं इस वैचारिक/ रुढ़िवादी और पाषाणयुगीन परम्पराओं को त्यागना होगा,नारी को देखने का नजरिया बदलना होगा, और समाज शिक्षण का ये बीड़ा उठाना पड़ेगा और प्रारंभ अपने घर से ही करना होगा|
अजन्मा दर्द
मैं बोल रही हूँ माँI ! तेरे भीतर से, सहमी सी, डरी सी,
मैं, जिसे बड़े लाड से तू बढ़ा रही है अपनी कोख में, और कर रही है प्रतीक्षा मेरे जन्म कीI |
मुझे कुछ कहना है माँ, जन्मने से पहले, सुन रही न तू मेरी पुकार माँ,
मुझे नहीं जन्म लेना है अभी, परिस्थितियां अभी नहीं हैं ठीक,
रोज तो दूरदर्शन औ अख़बारों में देख, सहमती है तू और सिसकियाँ भरती है मुझे भींच,
प्रति पल भयाक्रांत होती है दीदी के बारे में सोच कर, जो बड़ी हो रही है दिन रात,
पंख फडफडा कर उड़ने को तैयार, गगन से ऊँची लगाने को छलांग,
पर हाथ पकड़ लेती है तू जिसका हर बार |
पंख कतरने का भी तू करती है विचार, क्यूंकि तूने देखे हैं पुरुषों में भी गिद्धों के कई प्रकार,
शायद नोंच भी सही हो तूने कभी, दहलता है दिल भी तेरा ये सोच कर,
तेरी चिर्रैया का भी न नोंच लें मांस, गिद्ध कौए जो फिरते हैं आस पास,
वो तेरी आँखों से दूर होते ही अटक जाती है तेरी सांस
घर पड़ोस के सभी पुरुष तुझे शैतान नजर आते हैं, शक से तेरे, मेरे बापू भी नहीं बच पाते हैं |
दीदी जो भरना चाहती है मुक्त उडान, तेरी रोक टोक से विद्रोही बनी जाती है,
समझती है तुझे उस पर नहीं है भरोसा, नहीं जानती अक्सर अपने ही देते हैं धोखा |
मैं नहीं आना चाहती ऐसी अविश्वास,नफ़रत और वासना से भरी दुनिया में.
जहाँ मेरे सपने कुचले जायेंगे, वासना भरी निगाहें करेंगीं जहाँ मेरा पीछा,
आँखों की बेशर्मी से लोग करेंगे मेरा चीर हरण, हर पल प्रति पल जीवन होगा मेरा, मरण |
वो ही ‘शायद’ मेरी पीड़ा अधिक समझते हैं , भ्रूण हत्या का जो समर्थन करते हैं,
वो जानते हैं की समाज हमारा सन्मान नहीं करता, इसलिए बन जाते हैं वो हमारे विघ्नहर्ता,
हमें तिल-तिल मरने देना उन्हें गवारा नहीं, रोज हमारी इज्जत लुटे उन्हें प्यारा नहीं,
जन्म के बाद होने वाली हमारी स्थिति से हैं वो अवगत, सारी त्रासदी से करना चाहतें हैं हमें मुक्त |
मैं भी चाहती हूँ के जन्मूँ तो ऐसी व्यवस्था में, आमूल- चूल परिवर्तन हो जहाँ नारी की अवस्था में,
सिर्फ नाम के लिए जहाँ नारी का सन्मान न हो, नारी का साथ देने पर किसी पुरुष का अपमान न हो,
माँ की तरह बहन बेटी भी हो आदर की पात्र, पैर की जूती, भोग की वस्तु समझे जाने से मिले उन्हें निज़ात |
जब ऐसी व्यवस्था इस समाज में , देश में आ जाएगी, तेरी ये बेटी ख़ुशी से तेरी कोख सजाएगी,
फ़िलहाल तो ढूँढ कोई नीम हकीम, डॉक्टर हमदर्द, पैसे के लालच में ही सही जो कर दे तेरी कोख सर्द |
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी,
क्यूंकि मैं नहीं समझ पाई तेरी सिसकियों का अर्थ, मुझे भींच जो तू भरती है कभी- कभी.
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी,
क्यूंकि नहीं जानती, मेरा अस्तित्व जो तेरे भीतर आकार है ले रहा,
वो परिणाम है तेरे प्यार का या अनिर्बाधित बलात्कार का.
नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती माँ ,
सहमी सी, डरी सी,
तू सुन रही हैं न माँ,
मैं बोल रही हूँ तेरे भीतर से.
– अवी घाणेकर
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